गीता प्रेस, गोरखपुर >> कल्याणकारी प्रवचन कल्याणकारी प्रवचनस्वामी रामसुखदास
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प्रस्तुत है कल्याकारी प्रवचनों का संग्रह....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
।। श्रीहरि: ।।
नम्र निवेदन
प्रस्तुत पुस्तक में परमपूज्य स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज द्वारा
दिये गये कुछ कल्याणकारी प्रवचनों का संग्रह किया गया है। ये प्रवचन
भगवत्प्राप्ति के अभिलाषी साधकों के लिये अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं
मार्गदर्शक हैं। इनमें गूढ़ तात्त्विक बातों को सरल भाषा और सरल रीति से
समझाया गया है। कल्याणकांक्षी पाठकों से निवेदन है कि वे इस पुस्तक का
अध्ययन-मनन करके इससे अधिकाधिक लाभ उठाने की चेष्टा करें।
विनीत
प्रकाशक
प्रकाशक
1. संसार का आश्रय कैसे छूटे ?
हम भगवान् के आश्रित हो जायँ अथवा संसार का आश्रय छोड़ दें दोनों का एक ही
अर्थ होता है। संसार का आश्रय सर्वथा छूट जाने से भगवान् का आश्रय स्वत:
प्राप्त हो जाता है और भगवान् के सर्वथा आश्रित हो जाने से संसार का आश्रय
स्वत: छूट जाता है। इन दोनों में से किसी एक की मुख्यता रखकर चलें अथवा
दोनों को साथ रखते हुए चलें, एक ही अवस्था हो जाती है अर्थात् कल्याण हो
जाता है।
भगवान् के आश्रित होने में संसार का आश्रय ही खास बाधक है। संसार का आश्रय न छूटने में खास कारण है- संयोगजन्य सुखकी आसक्ति। संयोगजन्य सुख में मन का जो खिंचाव है, प्रियता है, यही संसार के आश्रय की, संसार के संबंध की खास जड़ है। यह जड़ कट जाय तो संसार का आश्रय छूट जायगा। परन्तु भीतर से संयोगजन्य सुख की लोलुपता रहते हुए बाहर से चले संबंध छोड़ दो, साधु भी बन जाओ, पैसा भी छोड़ दो, पदार्थ भी छोड़ दो, गाँव छोड़कर जंगलों में चले जाओ, तो भी संसार का आश्रय छूटेगा नहीं।
संयोगजन्य सुख आठ प्रकार का है- शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, मान (शरीर का आदर-सत्कार), बड़ाई (नाम की प्रशंसा) और आराम।
ये आठ प्रकार के संयोगजन्य सुख ही मूल बाधाएँ हैं। जब तक इन सुखों में आकर्षण है, प्रियता है, ये अच्छे लगते हैं, तब तक संसार का आश्रय छूटता नहीं। अगर केवल भगवान् का ही आश्रय ले लिया जाय तो संसार का आश्रय छूट जायगा। संयोगजन्य सुख का बड़ा भारी आकर्षण है। पर वह कब छूटेगा ? जब मनुष्य केवल भगवान् का आश्रय लेकर भगवान् के भजन-स्मरण में लीन होगा। भगवान् के भजन-स्मरण में लीन होने से जब पारमार्थिक सुख मिलने लगेगा, तब संयोगजन्य सुख सुगमता से, सरलता से, छूट जायगा।
उस पारमार्थिक सुख में इतनी विलक्षणता, अलौकिकता है कि उसके सामने संसार के सब सुख नगण्य हैं, तुच्छ हैं, कुछ नहीं हैं। जब वहाँ पारमार्थिक सुख मिलने लगेगा, तब संसार के सुख फीके पड़ जायँगे, स्वत: स्वाभाविक तुच्छ लगने लगेंगे। अत: उस पारमार्थिक सुख को, आनन्द को ही लेना चाहिये। उसको लेने के दो तरीके हैं चाहे भावना-(भक्ति) से ले लो और चाहे विवेक-(ज्ञान-) से ले लो। भगवान् से ऐसे लो कि भगवान् हैं, वे मेरे हैं और मैं उनका हूँ-
मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई रे।
भगवान् को अपना मानने के साथ-साथ ‘दूसरो न कोई’- यह मानना जरूरी है। परन्तु होता यह है कि संसार में अपनापन रखते हुए भगवान् में अपनापन करते हैं। वास्तव में संसार के साथ अपनापन रहता नहीं-यह निश्चित बात है। जन्म से पहले जिस कुटुम्ब के साथ अपनापन था, आज उस कुटुम्ब की याद ही नहीं है। इसी प्रकार आज जिस कुटुम्ब के साथ, जिन रुपयों के साथ, जिन भोगों के साथ हमारा अपनापन है, वे भविष्य में याद तक नहीं रहेंगे, संबंध तो क्या रहेगा ? अत: जो रहेगा ही नहीं, उसको छोड़ने में क्या जोर आता है ? जो रहने वाला हो, उसको यदि छोड़ने के लिये कहा जाय, तब तो कुछ कठिनता भी मालूम देगी कि रहने वाली चीज को कैसे छोड़ दें ! पर संसार तो छूटेगा ही और छूटता ही चला जा रहा है; अत: उसको छोड़ने में कठिनता कैसी ? केवल मूर्खता के कारण ही हमने उसको पकड़ रखा है।
थोड़ा-सा विचार करें तो बात स्पष्ट समझ में आती है कि बाल्यावस्था में हमारा जिन मित्रों के साथ, जिन खिलौनों के साथ, जिन व्यक्तियों के साथ संबंध था, वह संबंध आज केवल याद-मात्र है। आज वह संबंध नहीं है। न उस अवस्था के साथ संबंध है, न उन घटनाओं के साथ संबंध है। न उन खिलौनों के साथ संबंध है, न उस समय के साथ संबंध है। अब आप कहते हो कि हमारी बाल्यावस्था ऐसी थी कि हम अड़ जाँय कि ऐसी नहीं थी, तो आपके पास कोई प्रबल प्रमाण नहीं है कि आप उसको हमें बता सकें। आप और हम जिद भले ही कर लें, पर ‘हमारी बाल्यावस्था ऐसी थी’- इसको आप और हम नहीं बता सकते। बतायें भी तो क्या बतायें और कैसे बतायें ?
किसकी ताकत है, जो उसको बता दे ? आपको अपनी बाल्यावस्था वर्तमान अवस्था की तरह सच्ची दीखती थी, पर आज आप उसको सिद्ध नहीं कर सकते, तो फिर आज आपकी जो अवस्था है, उसको आगे सिद्ध करना चाहेंगे तो कैसे करेंगे ? जिस तरह से उस बाल्यावस्था का समय बीता उसी तरह से यह आज का समय बीत रहा है। भविष्य में क्या होगा, अभी घण्टे भर बाद में क्या होगा, कुछ पता नहीं ! आज से युगों पहले क्या हुआ, पता नहीं और आज से युगों बाद क्या होगा, पता नहीं। वर्तमान भी बड़ी तेजी से बीत रहा है। वर्तमान, ‘है’ का नाम नहीं है, प्रत्युत जो बरत रहा है अर्थात् तेजी से जा रहा है, उसका नाम वर्तमान है। वर्तमान इतनी तेजी से जा रहा है कि इसका एक क्षण भी स्थिर नहीं है। वर्तमान कोई काल है ही नहीं, केवल भूत और भविष्य की सन्धि को वर्तमान कहा गया है। वर्तमान शब्द का अर्थ ही है-चलता हुआ। जो भविष्य है, वह सामने आ करके भूत में जा रहा है, उसको वर्तमान कहते हैं। इस प्रकार जो कभी स्थिर रहता ही नहीं, जिसका प्रतिक्षण वियोग हो रहा है, उससे विमुख होने में क्या जोर आता है, बताओ ? यह तो जबरदस्ती छूटेगा, रहेगा नहीं। इसको रखना चाहोगे तो बेइज्जती, दु:ख, सन्ताप, जलन, आफत के सिवाय और कुछ मिलने का है नहीं। परन्तु इसको छोड़ दोगे तो निहाल हो जाओगे ! अत: चाहे संसार के संबंध का त्याग कर दो चाहे भगवान् के साथ संबंध मान लो कि ‘हे भगवान् ! आप ही हमारे हो’। भगवान् का ही नाम लो, उनका ही चिन्तन करो, उनके आगे रोओ और कहो कि ‘महाराज ! संसार का त्याग करने में मैं तो हार गया, मुझे अपनी मनोवृत्तियाँ बड़ी प्रबल प्रतीत होती हैं।’ ऐसे करके भगवान् के शरण हो जाओ। तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
भगवान् के आश्रित होने में संसार का आश्रय ही खास बाधक है। संसार का आश्रय न छूटने में खास कारण है- संयोगजन्य सुखकी आसक्ति। संयोगजन्य सुख में मन का जो खिंचाव है, प्रियता है, यही संसार के आश्रय की, संसार के संबंध की खास जड़ है। यह जड़ कट जाय तो संसार का आश्रय छूट जायगा। परन्तु भीतर से संयोगजन्य सुख की लोलुपता रहते हुए बाहर से चले संबंध छोड़ दो, साधु भी बन जाओ, पैसा भी छोड़ दो, पदार्थ भी छोड़ दो, गाँव छोड़कर जंगलों में चले जाओ, तो भी संसार का आश्रय छूटेगा नहीं।
संयोगजन्य सुख आठ प्रकार का है- शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, मान (शरीर का आदर-सत्कार), बड़ाई (नाम की प्रशंसा) और आराम।
ये आठ प्रकार के संयोगजन्य सुख ही मूल बाधाएँ हैं। जब तक इन सुखों में आकर्षण है, प्रियता है, ये अच्छे लगते हैं, तब तक संसार का आश्रय छूटता नहीं। अगर केवल भगवान् का ही आश्रय ले लिया जाय तो संसार का आश्रय छूट जायगा। संयोगजन्य सुख का बड़ा भारी आकर्षण है। पर वह कब छूटेगा ? जब मनुष्य केवल भगवान् का आश्रय लेकर भगवान् के भजन-स्मरण में लीन होगा। भगवान् के भजन-स्मरण में लीन होने से जब पारमार्थिक सुख मिलने लगेगा, तब संयोगजन्य सुख सुगमता से, सरलता से, छूट जायगा।
उस पारमार्थिक सुख में इतनी विलक्षणता, अलौकिकता है कि उसके सामने संसार के सब सुख नगण्य हैं, तुच्छ हैं, कुछ नहीं हैं। जब वहाँ पारमार्थिक सुख मिलने लगेगा, तब संसार के सुख फीके पड़ जायँगे, स्वत: स्वाभाविक तुच्छ लगने लगेंगे। अत: उस पारमार्थिक सुख को, आनन्द को ही लेना चाहिये। उसको लेने के दो तरीके हैं चाहे भावना-(भक्ति) से ले लो और चाहे विवेक-(ज्ञान-) से ले लो। भगवान् से ऐसे लो कि भगवान् हैं, वे मेरे हैं और मैं उनका हूँ-
मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई रे।
भगवान् को अपना मानने के साथ-साथ ‘दूसरो न कोई’- यह मानना जरूरी है। परन्तु होता यह है कि संसार में अपनापन रखते हुए भगवान् में अपनापन करते हैं। वास्तव में संसार के साथ अपनापन रहता नहीं-यह निश्चित बात है। जन्म से पहले जिस कुटुम्ब के साथ अपनापन था, आज उस कुटुम्ब की याद ही नहीं है। इसी प्रकार आज जिस कुटुम्ब के साथ, जिन रुपयों के साथ, जिन भोगों के साथ हमारा अपनापन है, वे भविष्य में याद तक नहीं रहेंगे, संबंध तो क्या रहेगा ? अत: जो रहेगा ही नहीं, उसको छोड़ने में क्या जोर आता है ? जो रहने वाला हो, उसको यदि छोड़ने के लिये कहा जाय, तब तो कुछ कठिनता भी मालूम देगी कि रहने वाली चीज को कैसे छोड़ दें ! पर संसार तो छूटेगा ही और छूटता ही चला जा रहा है; अत: उसको छोड़ने में कठिनता कैसी ? केवल मूर्खता के कारण ही हमने उसको पकड़ रखा है।
थोड़ा-सा विचार करें तो बात स्पष्ट समझ में आती है कि बाल्यावस्था में हमारा जिन मित्रों के साथ, जिन खिलौनों के साथ, जिन व्यक्तियों के साथ संबंध था, वह संबंध आज केवल याद-मात्र है। आज वह संबंध नहीं है। न उस अवस्था के साथ संबंध है, न उन घटनाओं के साथ संबंध है। न उन खिलौनों के साथ संबंध है, न उस समय के साथ संबंध है। अब आप कहते हो कि हमारी बाल्यावस्था ऐसी थी कि हम अड़ जाँय कि ऐसी नहीं थी, तो आपके पास कोई प्रबल प्रमाण नहीं है कि आप उसको हमें बता सकें। आप और हम जिद भले ही कर लें, पर ‘हमारी बाल्यावस्था ऐसी थी’- इसको आप और हम नहीं बता सकते। बतायें भी तो क्या बतायें और कैसे बतायें ?
किसकी ताकत है, जो उसको बता दे ? आपको अपनी बाल्यावस्था वर्तमान अवस्था की तरह सच्ची दीखती थी, पर आज आप उसको सिद्ध नहीं कर सकते, तो फिर आज आपकी जो अवस्था है, उसको आगे सिद्ध करना चाहेंगे तो कैसे करेंगे ? जिस तरह से उस बाल्यावस्था का समय बीता उसी तरह से यह आज का समय बीत रहा है। भविष्य में क्या होगा, अभी घण्टे भर बाद में क्या होगा, कुछ पता नहीं ! आज से युगों पहले क्या हुआ, पता नहीं और आज से युगों बाद क्या होगा, पता नहीं। वर्तमान भी बड़ी तेजी से बीत रहा है। वर्तमान, ‘है’ का नाम नहीं है, प्रत्युत जो बरत रहा है अर्थात् तेजी से जा रहा है, उसका नाम वर्तमान है। वर्तमान इतनी तेजी से जा रहा है कि इसका एक क्षण भी स्थिर नहीं है। वर्तमान कोई काल है ही नहीं, केवल भूत और भविष्य की सन्धि को वर्तमान कहा गया है। वर्तमान शब्द का अर्थ ही है-चलता हुआ। जो भविष्य है, वह सामने आ करके भूत में जा रहा है, उसको वर्तमान कहते हैं। इस प्रकार जो कभी स्थिर रहता ही नहीं, जिसका प्रतिक्षण वियोग हो रहा है, उससे विमुख होने में क्या जोर आता है, बताओ ? यह तो जबरदस्ती छूटेगा, रहेगा नहीं। इसको रखना चाहोगे तो बेइज्जती, दु:ख, सन्ताप, जलन, आफत के सिवाय और कुछ मिलने का है नहीं। परन्तु इसको छोड़ दोगे तो निहाल हो जाओगे ! अत: चाहे संसार के संबंध का त्याग कर दो चाहे भगवान् के साथ संबंध मान लो कि ‘हे भगवान् ! आप ही हमारे हो’। भगवान् का ही नाम लो, उनका ही चिन्तन करो, उनके आगे रोओ और कहो कि ‘महाराज ! संसार का त्याग करने में मैं तो हार गया, मुझे अपनी मनोवृत्तियाँ बड़ी प्रबल प्रतीत होती हैं।’ ऐसे करके भगवान् के शरण हो जाओ। तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
हौं हार्यो करि जतन बिबिध बिधि अतिसै प्रबल अजै।
तुलसिदास बस होइ तबहिं जब प्रेरक प्रभु बरजै।।
तुलसिदास बस होइ तबहिं जब प्रेरक प्रभु बरजै।।
(विनय पत्रिका 81)
हमारे से तो ये शत्रु सीधे होते नहीं। वे प्रभु कृपा करेंगे, तभी ये सीधे
होंगे। परन्तु अपनी शक्ति का पूरा उपयोग किये बिना मनुष्य अपनी शक्ति से
हताश नहीं हो पाता-अपने में असमर्थता का अनुभव नहीं कर पाता। अपनी शक्ति
से हताश हुए बिना अभिमान नहीं मिटता कि मैं ऐसा कर सकता हूँ पूरी शक्ति
लगाकर भी काम न बने तो कह दे कि ‘हे नाथ ! अब मैं कुछ नहीं कर
सकता
!’ तो फिर उसी क्षण काम बन जायगा। परन्तु पूरी शक्ति लगाये बिना
ऐसी
अनन्यता नहीं आती। इसलिये जो आप कर सकते हैं, उसे पूरा करके मन की निकाल
दें। जब भीतर यह विश्वास जायगा कि मेरी शक्ति से काम नहीं होगा, तब स्वत:
पुकार निकलेगी कि ‘हे नाथ ! मेरी शक्ति से नहीं होता’
और उसी
क्षण भगवान् की शक्ति से काम पूरा हो जायगा। अपनी शक्ति बाकी रखते हुए
भगवान् के अनन्य शरण नहीं हो सकते। अगर अपनी शक्ति का कुछ आश्रय है कि हम
कुछ कर सकते हैं, तो करके पूरा कर लो। जितना जोर लगाना हो, पूरा-का-पूरा
लगा लो। पूरा जोर लगाने पर जब बाकी नहीं रहेगा, तब कार्य सिद्ध हो जायगा।
कारण कि संसार का जो आश्रय है, वह परमात्मा का आश्रय नहीं लेने देता, इतना
ही उसका काम है और खुद वह रहता नहीं !
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